सौ में से एक याकूब को फांसी देकर कैसे समझें कि इंसाफ हो गया ?

22 साल बाद 1993 के मुंबई सीरियल बम ब्लास्ट्स के मुख्य आरोपियों में से एक याकूब मेमन को आखिर फांसी दे दी गयी | इस बारे में खबरिया चैनलों के रिपोर्टर्स/ एंकर्स बार-बार कह रहे हैं, कि आखिर इंसाफ हो गया और इससे उस हादसे के शिकार लोगों और उनके रिश्तेदारों को बड़ा सुकून मिलेगा; यहाँ तक कहा जा रहा हैं कि ये लोग बरसों से इस दिन का इंतजार कर रहे थे और इससे उनकी 22 बरस की आस पूरी हो गयी | बड़े ही अजीब और हास्यास्पद स्टेटमेंट्स दिए जा रहे हैं | अपने निकटतम प्रियजन को 22 साल पहले खो चुके व्यक्ति को इससे वह प्रियजन मिल जायेगा ?

उस प्रियजन के छीन जाने से उसके जीवन में जो बिखराव आया होगा, वह व्यक्ति उस स्थिति से उबर कर, जीवन को सम्हालने संवारने में अपना ध्यान लगाएगा या केवल एक पकड़े गए गुनहगार को फांसी हो जाये इस बदले की भावना को दिल में पालकर उसकी फांसी की आस लगाये रहेगा ? सोचा जाये तो ऐसी नासमझी वाली बातें करना उनके जले पर नमक छिड़कने जैसा ही हैं | पूरी तरह ठन्डे दिमाग से (Cold Blooded) योजना बना कर मुंबई महानगर के व्यस्त इलाकों में श्रृंखला-बद्ध बम धमाके करना; जिनसे 257 निर्दोष लोगों की जान चली गयी; जिसमें सभी धर्म-जाति के और आयु-वर्ग के लोग थे और इससे भी अधिक जानें जा सकती थी |

ऐसा क्रूर व अमानवीय कृत्य करने वाले के प्रति कोई सहानुभूति कैसे रख सकता हैं ? हमारी लचर क़ानूनी प्रक्रिया का फायदा उठाकर, यदि यह एकमात्र पकड़ा गया गुनहगार भी बच गया होता; तब तो पीड़ित लोगों को बहुत ही गुस्सा आता और देशवासियों का कानून-व्यस्था में भरोसा और भी कम हो जाता | परन्तु, क्या एक गुनहगार की फांसी को ही इस गुनाह के खिलाफ लड़ाई की अंतिम जीत मान ली जाये ? इस अंधे हत्याकांड की जाँच में कुल 129 लोगों को आरोपी बनाया गया था |

दाऊद इब्राहिम और टाइगर मेमन को इसका मास्टर माइंड माना जाता है और याकूब भी साजिश-कर्ताओं में शामिल माना गया है | 129 आरोपियों में से सबूतों को देखते हुए करीब 100 के खिलाफ केस बना था | लेकिन उनमें से केवल एक याकूब ही कानून की गिरफ्त में आया | शेष 99 का या तो पता ही नहीं चला या वे दूसरे देश भाग गये या अपनी पहचान ही बदल दी | इतने सालों में तो कुछ दूसरे लोक में भी चले गए होंगे | पर सबसे अफसोसनाक पक्ष यह है कि इस कांड का खास मास्टरमाइंड दाऊद पाकिस्तान में रहकर शान से अपना गैंग चला रहा है और आज भी आतंकियों की मदद कर रहा है | क्या यह हमारे कानून और अंतर्राष्ट्रीय कानून की असफलता या हार नहीं है ? सामान्य बुद्धि से भी सोचे तो यह समझना आसान है कि यदि किसी गुनाह के 100 में हम केवल 1 ही गुनहगार को सजा दिला पाये तो यह मात्र 1 फीसदी सफलता ही मानी जाना चाहिए |

माना कि ऐसे बड़े कांड के मामले में सभी गुनहगारों को सबूतों सहित नहीं पकड़ा जा सकता है | पर पास होने के लिए 33 फीसदी अंक तो लाना चाहिए थे ना | हाँ, यदि मुख्य साजिशकर्ता को ही सजा दिलवा दी होती; यहाँ या पाकिस्तान में, कानून द्वारा या अन्य किसी भी तरह से तो भी हम अपने-आप को शाबाशी देने लायक पाते | परन्तु, पाकिस्तान को कोसने के अलावा, हम तो कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं और 22 सालों में मात्र एक फांसी देकर इसे जीत के जश्न लायक बता रहे हैं | इन बातों पर यह पूछा जाना स्वाभाविक है कि "तो हम क्या करें?" इसके कुछ जवाब तो ऐसे हैं, जो सार्वजनिक रूप से भी लिखे जा सकते हैं | जैसे, हमें गंभीरता से समीक्षा कर हमारी क़ानूनी व न्यायिक प्रक्रिया में ठोस सुधार करना चाहिये. जिससे ऐसे मामलों की जाँच और फैसले में लम्बा समय ना लगे |

दूसरा कदम यह भी जरुरी है कि हमें जोरदार तरीके से अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर यह बात उठानी चाहिये कि अंतर्राष्ट्रीय कानूनों में भी ऐसे सुधार हो जिनसे एक देश का अपराधी दूसरे देश में जाकर अपने-आप को ना बचा सके | किसी भी देश की कोई भी सरकार दूसरे देश के अपराधी को या अंतर्राष्ट्रीय अपराधियों को चाहकर भी बचा ना सके | इंटरपोल और अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय अब इतने मजबूत और प्रभावशाली संस्थान बनाना चाहिये जिससे भगोड़े अपराधी और इंटरनेशनल क्रिमिनल दुनिया में कहीं भी जाने पर बच नहीं पाये | और यह भी जरुरी है कि महाराष्ट्र पुलिस से शेष 99 अपराधियों के बारे में अपनी भूमिका साफ करने को कहा जाये | पुलिस को पूरी जानकारी सार्वजनिक करना चाहिये कि उन 99 के बारे में तफ्तीश के और उन्हें पकड़ने के उसने अबतक क्या प्रयास किये ? उसे उन आरोपियों के बारे में अब-तक क्या-क्या जानकारी मिली ? इनमें से किस आरोपी की खोज, उसने कब और क्यों बंद की? पुलिस की सफाई के आधार पर ही यह निर्णय किया जाना चाहिये कि वह कृपांक से पास करने लायक है या नहीं?

वैसे तो इससे सीधा जुड़ा और बड़ा मुद्दा यह भी है कि क्या यह सब करके भी हम आतंकियों और आतंकवाद को ख़त्म कर सकते हैं? बिलकुल नहीं, क्योंकि यह तो आतंकवाद के शाखाओं और पत्तों को काटना ही होगा, उस विष-वृक्ष की जड़े तो कहीं और ही हैं | जड़ों की बात करेंगे तो बात बहुत लम्बी हो जाएगी | इसलिए संक्षिप्त जवाब में ही बात पूरी कर दूँ कि वे जड़ें धार्मिक कट्टरता और अंध-विश्वासों में हैं | जिनका असली और स्थायी हल इंसानियत की एकता को पहचानने में हैं, जो शुद्ध व पूर्ण रूप में तो धार्मिकता से या मजहबों से आज़ादी द्वारा ही आ सकती हैं | धर्मों की तो नैतिकता सम्बन्धी शिक्षायें भी आउट-डेटेड हो चुकी हैं | इसलिये आतंकवाद के साथ-साथ अंध-श्रद्धा, पाखंड और रूढ़िवादिता से भी तभी मुक्ति मिलेगी जबकि इंसान विज्ञानं को ही सत्य की प्रमाणिकता का आधार मानें | वैज्ञानिक दृष्टिकोण या विवेकवाद (Rationalism) को अपनाये, धार्मिक कु-संस्कारों या धार्मिकता से भी मुक्त हो और केवल इंसानियत को ही अपना वृहत समाज मानें, उसके जन्म आधारित विभाजनों को महत्व न दें|

हरिप्रकाश 'विसंत'

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