इक रोज़ मिलूंगा तुमसे बंदिशों से परे मुफलिसी के दिन जो गुज़ारे हैं तुम्हारे बिन फिर हिसाब कर लेंगे उन सारी उदास शामों का उन बारिशों का उन तमाम रातों का जब बस ये घड़ी सारी रात जगती है साथ मेरे वो लम्बी दोपहरें वो अंतहीन दिन जो काटे हैं तेरी याद में मैंने मुझे पूछने है तुमसे कितने सारे सवाल पूछना है कैसी हो तुम? क्या बिल्कुल याद नहीं आती मेरी? क्या मुझे हँसता देख अब भी खुश हो जाती हो ? रूठते हो क्या अब भी वैसे ही? कौन मनाता है अब तुम्हें ? और पूछना था.. खुश तो हो ना? मन हो तो बता देना वरना बस मुस्कुरा देना.. इक रोज़ कभी मिलूंगा तुमसे सारी बंदिशों से परे..