तूफां को कभी तुमने सरगोशी से दबे पैरों से आते हुए देखा है? मासूम कदमो को तन्हाइयों के तार बजाते हुए देखा है? बीती किरदारों की उलझे शक्लों में अपनेपन की गवाही तजुर्वों को छुए बिन नन्हे ख़्वाबों को पलको में आते हुए देखा है? रिसते हुए जज्बातों से पिघलती मेरे वसूलों की दीवारें सिमटने की कोशिश में, मौन लब्जों को उबलते हुए देखा है? हौले-हौले मेरी गहरी जड़ों को अपने मे समाती हुई उलझी ख्वाईसे पल पल कमजोर बनकर रौशनी को बुझते हुए देखा है? उसने ही बताया है रिस्तों मे अजीज को शिकस्त देने की अदा कभी मासूम फूलों मे संगदिल काँटो को मुस्कुराते हुए देखा है ? किनारे की दरारों से मिटटी की नसों में रिसता हुआ पानी खुद में समा लेने के लिए अरमानों को सुलगते हुए देखा है...