नमस्कार से क्या आप भली भांति परिचित है?

ईश्वर के दर्शन करते समय अथवा ज्येष्ठ या सम्माननीय व्यक्ति से मिलने पर हमारे हाथ अनायास ही जुड़ जाते हैं। हिंदू मन पर अंकित एक सात्विक संस्कार है नमस्कार। भक्तिभाव, प्रेम, आदर, लीनता जैसे दैवीगुणों को व्यक्त करने वाली व ईश्वरीय शक्ति प्रदान करने वाली यह एक सहज धार्मिक कृति है । नमस्कार की योग्य पद्धतियां क्या है? नमस्कार करते समय क्या नहीं करना चाहिए? इसका शास्त्रोक्त विवरण यहां दे रहे हैं।

नमस्कार के लाभ- मूल धातु नम: से नमस्कार शब्द बना है । नम: का अर्थ है नमस्कार करना, वंदन करना। नमस्कार का मुख्य उद्देश्य है - जिन्हें हम नमन करते हैं, उनसे हमें आध्यात्मिक व व्यावहारिक लाभ हो ।

व्यावहारिक लाभ- देवता अथवा संतों को नमन करने से उनके गुण व कर्त्तव्य का आदर्श हमारे समक्ष सहज उभर आता है । उसका अनुसरण करते हुए हम स्वयंको सुधारने का प्रयास करते हैं ।

आध्यात्मिक लाभ •    नम्रता बढ़ती है व अहं कम होता है । •    शरणागति व कृतज्ञता की भाव बढ़ता है । •    सात्विकता मिलती है व आध्यात्मिक उन्नति शीघ्र होती है ।

मंदिर में प्रवेश करते समय नमस्कार विधि- सीढिय़ों को दाहिने हाथ की उंगलियों से स्पर्श कर, उसी हाथ को सिर पर फेरें । मंदिर के प्रांगण में देवताओं की तरंगो के संचार के कारण सात्विकता अधिक होती है । परिसर में फैले चैतन्य से सीढिय़ां भी प्रभावित होती हैं । इसलिए सीढ़ी को दाहिने हाथ की उंगलियों से स्पर्श कर, उसी हाथ को सिर पर फेरने की प्रथा है । इससे ध्यान में आता है कि, सीढिय़ों की धूल भी चैतन्यमय होती है, हमें उसका भी सम्मान करना चाहिए ।

देवता को नमन करने की योग्य पद्धति- देवता को नमन करते समय, सर्वप्रथम दोनों हथेलियों को छाती के समक्ष एक-दूसरे से जोड़ें। हाथों को जोड़ते समय उंगलियां ढीली रखें। हाथों की दो उंगलियों के बीच अंतर न रख, उन्हें सटाए रखें। हाथों की उंगलियों को अंगूठे से दूर रखें । हथेलियों को एक-दूसरे से न सटाएं, उनके बीच रिक्त स्थान छोड़ें,  हाथ जोडने के उपरांत, पीठ को आगे की ओर थोड़ा झुकाएं । 

उसी समय सिर को कुछ झुकाकर भूमध्य (भौहों के मध्य भाग) को दोनों हाथों के अंगूठों से स्पर्श कर, मन को देवता के चरणों में एकाग्र करने का प्रयास करें । 

तदुपरांत हाथ सीधे नीचे न लाकर, नम्रतापूर्वक छाती के मध्य भाग को कलाईयों से कुछ क्षण स्पर्श कर, फिर हाथ नीचे लाएं ।इस प्रकार नमस्कार करने पर, अन्य पद्धतियों की तुलना में देवता का चैतन्य शरीर द्वारा अधिक ग्रहण किया जाता है ।

वयोवृद्धों को नमस्कार करना- घर के वयोवृद्धों को झुककर लीनभाव से नमस्कार करने का अर्थ है, एक प्रकार से उनमें विद्यमान देवत्व की शरण जाना । वयोवृद्धो के माध्यम से, जीव को आवश्यक देवता का तत्व ब्रह्मांड से मिलता है । उनसे प्राप्त सात्विक तरंगों के बल पर, कष्टदायक स्पंदनोंसे अपना रक्षण करना चाहिए । इष्ट देवता का स्मरण कर की गई आशीर्वादात्मक कृति से दोनों जीवों में ईश्वरीय गुणों का संचय सरल होता है ।

विवाहोपरांत नवदंपति को एक साथ नमस्कार करना- विवाहोपरांत दोनों जीव गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते हैं । गृहस्थाश्र में एक-दूसरे के लिए पूरक बनकर संसार सागर-संबंधी कर्म करना व उनकी पूर्ति हेतु एक साथ बड़े-बूढ़ों के आशीर्वाद प्राप्त करना महत्वपूर्ण है। इस प्रकार नमस्कार करने से ब्रह्मांड की शिव-शक्तिरूपी तरंगें कार्यरत होती हैं । गृहस्थाश्रम में परिपूर्ण कर्म होकर, उनसे योग्य फल प्राप्ति होती है । इस कारण लेन-देन का हिसाब कम निर्माण होता है। एकत्रित नमस्कार करते समय पत्नी को पति के दाहिनी ओर खड़े रहना चाहिए ।

किसी से भेंट होने पर नमस्कार करना- किसी से भेंट हो, तो एक-दूसरे के सामने खड़े होकर, दोनों हाथों की उंगलियों को जोड़ें । अंगूठे छाती से कुछ अंतर पर हों । इस प्रकार कुछ झुककर नमस्कार करें । इस प्रकार नमस्कार करनेसे जीव में नम्रभाव का संवर्धन होता है व ब्रह्मांड की सात्विक-तरंगें जीव की उंगलियों से शरीर में संक्रमित होती हैं । एक-दूसरे को इस प्रकार नमस्कार करने से दोनों की ओर आशीर्वादयुक्त तरंगों का प्रक्षेपण होता है ।

मृत व्यक्ति को नमस्कार करना- त्रेता व द्वापर युगों के जीव कलियुग के जीवों की तुलना में अत्यधिक सात्विक थे । इसलिए उस काल में साधना करने वाले जीव को देहत्याग के उपरांत दैवगति प्राप्त होती थी । कलियुग में कर्मकांड के अनुसार, ईश्वर से मृतदेह को सद्गति प्राप्त हो, ऐसी प्रार्थना कर मृतदेह को नमस्कार करने की प्रथा है ।

नमस्कार में क्या करें व क्या न करें ? 1. नमस्कार करते समय नेत्रों को बंद रखें । 2. नमस्कार करते समय पादत्राण धारण न करें । 3. एक हाथ से नमस्कार न करें । 4. नमस्कार करते समय हाथ में कोई वस्तु न हो। 5. नमस्कार करते समय पुरुष सिर न ढकें व स्त्रियों को सिर ढकना चाहिए ।

 

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