अंग अंग तेरे रंग में भिगो गई हूँ मैं

सुल्झ रही हूँ मैं ... पल पल रमती ही जा रही हूँ मैं तुझमें थे मीलों के फ़ासले सदियों की दूरियाँ  दिखती थीं कभी दूर अनजान असीम  राहें तेरी अब वह सब पा ही गई हूँ मैं 

अपनी खुदाई को तुझमें रमा गई हूँ मैं  समुंदर सा वज़ूद था कभी मेरा अपना तपश-ए-इश्क में धुआँ हो ही गई हूँ मैं बन घटा तुझ तक पहुँच ही गई हूँ मैं

तेरे मन को भी अब भा ही गई हूँ मैं आस्मान मेरे बन बदली छा गई हूँ मैं  सुन मेघ मेरे, मेघा तेरी हो गई हूँ मैं तेरी बारिश पा परिपूर्ण हो गई हूँ मैं

अंग अंग तेरे रंग में भिगो गई हूँ मैं  आंचल में तेरे सिमट खो गई हूँ मैं  मेरे कान्हा तेरी बांसुरी हो गई हूँ मैं  तेरे होंठों से लिपट तेरी हो गई हूँ मैं 

बच्पन से था आँखों में तूँ बन कर मेरा सप्ना  तेरी चाहत के सिवा ना स्जाया मैने कोई सप्ना लगता रहा उमर भर के है तो तूँ कोई अपना  इस शाम ढले मिल ही गया तूँ होकर अपना 

अबके सावन उँगलियाँ मेरी उलझी जो तुझमें  उँगलियाँ तेरी भी उलझी रही हैं अब मुझमें  तेरे सुरों ने छेडी ताल वह आज मेरे मन की  तेरी सांसो में मिल मेरी सांसे भी खिल रही हैं 

गिरहे रूहों की अपनी अबके जो यह हैं उल्झी  तेरी रूह ही अब्के मेरी रूह में जा के है उल्झी  बन जोगन मैं तो थी कब से ही उलझी तुझ्मे  यूई जब उलझा तूँ मुझमें तो सुल्झ रही हूँ.a

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