अक्सर दबी आग में चिंगारी दहकती हैं

आँखों में आसूं नहीं शबनम के मोती हैं  तमाम ख़्वाहिशें इन्हीं पलकों पे सोती हैं चूमकर पेशानी उसकी मुतमईन होता हूँ  वो मासूम जब कभी नींदों में हंसती हैं मुहब्बतों में धूप होती है साए नहीं होते  बारिशों की छांव में कश्ती बेचैन होती हैं रूह का सफ़र दिल के कांधों गुजरता हैं  नंगे पांवों के नसीब में किरचें चुभती हैं ज़िन्दगी तेरे साथ तो मैं चल लिया बहुत  कज़ा की आहटों को तमन्ना मचलती हैं मरने की दुआ दोस्तों ने की बहुत मगर  खलिश जाँ जिगर से कब निकलती हैं नाकाम मुहब्बतें रूसवाईयाँ ज़फा बेरुख़ी मेरे साथ साथ ये सब साजिशें चलती हैं तुम भी खुश हो लो मगर ये याद रखना  अक्सर दबी आग में चिंगारी दहकती हैं बहुत दिनों बाद मन ने कुछ लिखवा दिया-आपकी नजर है-जैसा चाहें सलूक करें इसके साथ-मैं बहुत निकम्मा और नाकारा आदमी हूँ कभी कभी लिख पाता हूँ. रोज रोज5-5 रचनाओं का सामर्थ्य नहीं है मुझमे...फिर वो ही स्वान्तः सुखाय

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