अब मुश्किल हुआ जीना

तनख्वाह-ए-इंतज़ार मे कटता है महीना बनिए की नौकरी मे अब मुश्किल हुआ जीना तंख्वाह— हफ्ते जो चार आते महीने के दरमियान रहती कभी खुशी तो कभी रहते परेशान बेगम और बच्चो की है जो बेजार फरमाइश ले लेगी जान गहनों साड़ियों की नुमाइश हरदम दबा के हाथ मजबूरी बना जीना तंख्वाह –ए-इंतज़ार जब आती है तनख्वाह हमे पैसा है मिलता कितना है लाजबाब वो इफ़रात का हफ्ता बेग़म की भी निकलती है मिसिरी घुली जुबान लगता दुकानदार ने मेरे नाम की दुकान हफ्ता –ए- इफ़रात तूँ हालात-ए-नगीना तनख्वाह-ए-इंतज़ार जब दूसरा हफ्ता लगा होने लगी कमी फिर हाथ दबा खर्चता पैसा है आदमी सब्जी और मिठाई और नाश्ते मे हो कमी हफ्ता-ए-एहतियात पेट काटे आदमी ए फौज कर्जदारों की मुश्किल करी जीना तनख्वाह-ए-इंतज़ार शुरुवात हफ्ता तीसरा रुक्के से है शुरू बनिया भी ढीला पड़ गया बनता था शुर्खुरु दस बीस और पचास भी अब सोचना पड़ता थाली मे दाल सब्जी क्या हो सोचना पड़ता महंगाई ने दिखा दिया है मक्का मदीना तनख्वाह-ए-इंतज़ार आखिरी हफ्ते ने आकर तोड़ दी कमर मिलना मुहाल हो गया खाना है पेट भर फाँके की है नौबत यहाँ गुजरी बहार है बेसब्री से पहली तुम्हारा इंतज़ार है काटेंगे किस तरह से दिन छूटता है पसीना तनख्वाह-ए-इंतज़ार 

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