अब कहां रहा मानवता से इनका नाता
अब कहां रहा मानवता से इनका नाता
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भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के बेहतरी के दावे लाख किए जाऐं। जननी सुरक्षा योजना, संजीवनी योजना, निःशुल्क दवा योजना, आयुष विंग की स्थापना हो या फिर एंबुलेंस सेवाओं की सुविधाऐं दिए जाने की योजनाऐं हों। स्वास्थ्य विभाग की लचर कार्यप्रणाली और प्रशासनिक उदासीनता के चलते ये योजनाऐं दमतोड़ती साबित होती हैं। हालात ये हैं कि कई ऐसे अस्पताल जिन्हें शासकीय सुविधाओं से लैस किया जाता है और जहां लगभग पूरे संभाग के मरीजों का दबाव होता है सुविधाऐं प्रारंभ किए जाने के वर्षभर बाद ही अभावों से पट जाते हैं।

हालात ये रहते हैं कि मरीज मर्ज से कराहते रहते हैं मगर डाॅक्टर इन अस्पतालों में ढूंढे नहीं मिलते। कई बार डाॅक्टर मिल जाए तो निशुल्क कोटे की आवश्यक दवाईयां नहीं मिल पाती। गरीब वर्ग के लोगों को मजबूरन ये दवाईयां महंगी दर पर खरीदनी पड़ती हैं और तो और जब मानवीयता की सभी हदें पार हो जाऐं तब क्या कहने यदि किसी मरीज को थाली के स्थान पर अस्पताल के फर्श पर ही भोजन परोस दिया जाए और वह उसे खाने पर मजबूर हो जाए तो फिर क्या कहने।

इस तरह के हालात भारत के चिकित्सालय में देखने को मिल रहे हैं। भारत को लेकर कई तरह के दावे किए जाते हैं कि यहां पर सुरक्षित मातृत्व दर को बढ़ा लिया गया है लेकिन आज भी भारत में कई चिकित्सालय ऐसे हैं जहां पर नसबंदी के नाम पर महिलाओं की जान का सौदा कर दिया जाता है। कई बार ऐसी घटनाऐं सामने आ चुकी हैं कि नसबंदी करवाने गई महिला का गलत आॅपरेशन करने के चलते उसकी जान ही चली गई।

अब सवाल यह उठता है कि कर्मचारियों को सरकारी स्तर पर अच्छी तनख्वाह देने, चिकित्सकों को सुविधाऐं देने और कर्मचारियों को कार्य के अनुकूल माहौल देने के बाद भी इस तरह की लापरवाही क्यों होती है। अस्पताल में आने वाले मरीज को केवल एक रोगी काया ही क्यों मान लिया जाता है। क्या वह शरीर अमानवीय यातनाऐं झेलने के लिए ही है या फिर चिकित्सकों के उस उपयोग के लिए है जिसमें वे ड्रग ट्रायल के नाम पर एक जीवन के साथ प्रयोग करते रहते हैं।

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'लव गडकरी'

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