अकबर की अधीनता को ठुकराने वाले स्वाभिमानी महाराणा प्रताप
अकबर की अधीनता को ठुकराने वाले स्वाभिमानी महाराणा प्रताप
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भारत वीरों की भूमि है . यहाँ की गौरव गाथाएं सदियों से गूंज रही है . अनेक वीरो को जन्म देने वाली इस भारत भूमि पर राजस्थान में एक ऐसा वीर सपूत पैदा हुआ जिसने अपनी मातृ भूमि की रक्षा और स्वाभिमान के लिए अपने प्राणो का बलिदान दे दिया लेकिन अपने स्वाभिमान पर कभी आंच नहीं आने दी.जी हाँ हम बात कर रहे हैं मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप की , जिनके बिना राजस्थान का गौरव अधूरा है .

सिसोदिया राजवंश के राजा उदयसिंह के यहां कुम्भलगढ़ में उनकी पत्नी जैवन्ता की कोख से ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया विक्रम सम्वत 1597 तदनुसार 9 मई 1540 को जन्मे प्रताप के बारे में कभी सोचा भी नहीं था कि आगे चलकर यह बालक मातृ भूमि की रक्षा और स्वाभिमान का प्रतीक बन जाएगा. पिता की छत्र छाया में युद्ध कौशल सीखने वाले प्रताप में स्वाभिमान बचपन से ही भरा था, काल अपनी गति से बढ़ रहा था. युवा होते ही प्रताप का विवाह पंवार वंश की लड़की अजबदे से हुआ. कालांतर में प्रताप ने राजनैतिक कारणों से 11 शादियां की जिनसे संतति के रूप में 22 बच्चे हुए जिनमें 17 पुत्र और 5 पुत्रियां शामिल हैं . सन 1572 में पिता द्वारा प्रताप को महाराणा की उपाधि दी गई . तब से वे महाराणा प्रताप कहलाने लगे.

बता दें कि राजा उदय सिंह की और भी पत्नियां थीं जिनमें रानी धीर बाई सबसे अधिक प्रिय थी .जो अपने बेटे जगमाल को उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी. लेकिन प्रजा और उदय सिंह ने प्रताप को उत्तराधिकारी बनाया . यह वह दौर था जब अकबर पूरे भारत में अपनी हुकूमत करना चाहता था. लेकिन स्वाभिमानी महाराणा प्रताप ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की. जबकि उनके दो सौतेले भाई शक्ति सिंह और सागर सिंह अकबर से जा मिले. उन दिनों कई राजपूत राजाओं ने अकबर के सामने घुटने टेक दिए लेकिन स्वाभिमानी महाराणा प्रताप ने उसके प्रस्ताव को हमेशा ठुकराया . महाराणा प्रताप 16 वीं सदी के ऐसे राजा रहे जिनकी वीरता विश्व विख्यात है, मातृ भूमि की स्वतंत्रता और स्वाभिमान के लिए जीवन भर संघर्ष किया . सिंहासन छोड़ जंगलों में जीवन बिताया लेकिन अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की. जबकि अकबर का प्रस्ताव था कि उसकी दासता स्वीकार कर ले तो आधे हिंदुस्तान की सत्ता महाराणा प्रताप को दे दी जाएगी .यह संघर्ष 30 साल चला. यह अवधि कम नहीं होती .

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि 7 फ़ीट 5 इंच लम्बे और 110 किलो वजन वाले महाराणा प्रताप के कवच का वजन 72 किलो और भाले का वजन 80 किलो था .जिसे लेकर वह अपने प्रिय घोड़े चेतक पर सवार होकर युद्ध लड़ते थे. उदयपुर राज घराने के संग्रहालय में आज भी सुरक्षित है.संघर्ष का यह दौर यूँ ही चलता रहा .उदय सिंह के कार्यकाल में ही राजपूत राजाओं के अकबर से संधि कर लेने से मुगलो ने चित्तोड़ पर विजय पा ली. तब उन्होंने मेवाड़ को अपनी राजधानी बना ली और अपनी शक्ति संचित करते रहे .पिता उदयसिंह की मृत्यु होने पर महाराणा को यह अफ़सोस रहा कि वे पिता के जीते जी चित्तोड़ नहीं जीत सके .

हल्दी घाटी युद्ध - इस युद्ध से पहले भी अकबर ने अपने खास 5लोगों को भेजकर महाराणा प्रताप को अधीनता स्वीकार करने को कहा,लेकिन हर बार की तरह उन्होंने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया.बाद में 18 जून 1576 को मेवाड़ के राजा और मुग़लों के बीच एक दिन हल्दी घाटी युद्ध लड़ा गया .जिसमें महाराणा प्रताप के 20 हजार सैनिकों ने अकबर की 85 हजार सैनिकों से लोहा लिया. महाराणा प्रताप की ओर से एकमात्र मुस्लिम सरदार हाकिम खान सूरी ने नुमाइंदगी की.जबकि मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंघ और आसफ खां ने किया . इस दौरान बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलदान देकर महाराणा के जीवन की रक्षा की .इस भीषण युद्ध की तलवारें सदियों बाद भी ज़मीन में गड़ी मिली.आखरी बार 1985 में मिली .

महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की वीरता का जिक्र किये बिना हल्दी घाटी युद्ध अधूरा है युद्ध के दौरान 26 फ़ीट चौड़े दरिया को पार कर महाराणा की जान बचाने वाले चेतक केअगले दोनों पैर घायल हो गए और उसके प्राण पखेरू उड़ गए. चेतक की मौत का महाराणा को बहुत दुःख हुआ .हल्दी घाटी युद्ध के बाद अन्न के अभाव और सतत संघर्ष से निराशा भाव भी उत्पन्न हुआ .लेकिन स्वाभिमान को सर्वोच्च मानने वाले महाराणा ने मायरा की गुफा में घास की रोटियां खाकर दिन गुजारे लेकिन अपने स्वाभिमान पर आंच नहीं आने दी.

बाद में 1579 से 1585 के बीच मुग़ल प्रदेशों में विद्रोह होने से महाराणा ने एक बार फिर अपनी ताकत इकट्ठी की और उदयपुर के साथ 36 महत्वपूर्ण स्थानों को अपने अधिकार में कर लिया . लेकिन 11 साल बाद 19 जनवरी 1597 को नई राजधानी चावंड में एक छोटी सी दुर्घटना में 57 साल की आयु में महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गई . ..और स्वाभिमान के एक अध्याय का अंत हो गया .

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