oye.. छोटू, बारीक़,टिंगू बोल…. happy                                  
                                     childrens day
oye.. छोटू, बारीक़,टिंगू बोल…. happy childrens day
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oye.. छोटू, बारीक़,टिंगू बोल…. happy

  childrens day

वैसे तो संपादक की कलम आकलन, विश्लेषण का काम करती है पर आज मेरे स्याही के सागर में गणना नहीं ग्लानी है. और क्यों ना हो आज का दिन हमारे देश के लिए बेहद ख़ास है क्योकि 14 नवम्बर को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्म दिवस होता है, और क्योकि उन्हें बच्चो से बेहद लगाव था इसलिए ये दिन भारत सरकार द्वारा नन्हे-मुन्नों को समर्पित कर  “बाल दिवस “ के रूप में सारे भारत में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता जाता हैं|

ऐसे ही एक आयोजन में मेरा भी जाना हुआ चौराहे पर लगी नेहरूजी की प्रतिमा पर माल्यार्पण कार्यक्रम था स्थानीय नेता, मंत्री, समाजसेवी, शिक्षक सभी लोग पंडित जी के जयकारे लगाते हुए उन्हें हार पहना रहे थे|

आप सोच रहे होंगे ये सब तो सामान्य बात है हर आयोजन में ऐसा ही होता हैं. तो इस पर आर्टिकल की क्या जरूरत? परन्तु मेरे नज़रिये से, ये आयोजन थोड़ा अलग था, अलग इसलिए की ये जितने भी महानुभाव देशभक्ति के, याद किये हुए भाषणमेटर को बड़ी ताकत से बोल रहे थे, नेहरू जी को पुष्पांजली अर्पित कर रहे थे वो उस चोराहे पर ही हार-फूल  बेच रहे एक 10-12 साल के बच्चे से खरीद कर लाये थे |

इतना ही नही, फिर 4-5 बच्चे स्कूल यूनिफार्म में आये उनके हाथ में गुलाब की कलियाँ थी, वो कलियाँ भी शायद उसी फूलवाले बच्चे से ही ख़रीदी गई थी. फिर आयोजन खत्म हुआ सारे भाषणवादी हसी-ठिठोली करते घर चले गये बच्चो को मिठाई मिली इसलिए वो नन्हे विद्यार्थी भी खुश हो गये पर ख़ुशी उस फुल बेचने वाले मासूम के चहरे पर भी थी कि बालदिवस के नाम पर ही सही उसके हार-फूल तो बिक गये |

मुझे भी लगा इस दृश्य के साथ ही बाल दिवस समाप्त हुआ अब चला जाये, पर असली बाल दिवस तो अब शुरू हुआ जब कचरा बीनने वाली छोटी-छोटी दो बालिकाए शायद 8 या 10 साल की होंगी वहा आई और शिक्षित, सभ्य समाज वासियों द्वारा फेकी गई आधी भरी पानी की बोतल, नाश्ते की प्लेटो, थेलियों को बीनने लगी और बची झुठन को बड़े चाव से खाने लगी, ज़मीन पर बिखरे मूर्ति के फूलोँ से खेलने लगी और उन्हें देखकर ही शायद नेहरूजी कि मूर्ति भी मुस्कुरा रही थी. उसी वक्त दूर कही से एक गाने के बोल सुने दे रहे थे

“ हम लाये है तूफ़ान से कश्ती निकल के इस देश को रखना मेरे बच्चो सम्हाल के “

और मेरी आँखों में बालश्रम अधिनियम, 1986,  राष्ट्रीय बालश्रम नीति 1987, बाल अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम, 2005 जैसी कानून की मोटी-मोटी किताबे घूम रही थी.

याद आ रहा था कलाम साहब का विज़न 20-20 देश, विकास के नाम पर लाया गया GST, मोदी जी की बुलेट ट्रेन, केंद्रीय कर्मचारियों का सांतवा वेतनमान, पाटीदारों का आरक्षण आन्दोलन, अमित शाह के विकास के दावे और राहुल गांधी के वादे...

 

सब कुछ था इनमे सबकुछ, बस नहीं था तो वो फूल बेचता मासूम, झूठन खाती लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा का रूप, 1200 डिग्री के तापमान वाले भट्टे में ईट ढो रहा वो टिंगू, स्कुलो और सरकारी दफ्तरों में टाइम पर चाय पहुचाता वो बारीक़, और मार्केट में सेप्टिपिन, हेयर बैंड बेचता वो छोटू,

मेरे कानो में गूंज रहे थे नोबेल पुरस्कार विजेता श्री कैलाश सत्यार्थी के शब्द कि “इससे बड़ी त्रासदी और भला क्या होगी कि देश में आज भी लगभग 20 करोड़ वयस्क बेरोजगार हैं और 17 करोड़ बाल श्रमिक |

यही है भारत के असली बाल का रोजमर्रा का दिवस...

 

और रास्ते भर में यही सोचता रहा कि कारो के काफिले लेकर चलने वालो को  क्या सड़क किनारे जूते पोलिश करते मासूम नज़र नही आते.?

समझौतों के नाम पर हवाई जहाज में बैठकर विदेश यात्रा करने वाले देश के कर्णधारों को  क्या ज़मीन पर भीख माँगते नौनिहाल दिखाई नही देते.?

ग्लोबल इन्वेस्टर समिट में करोडो का रेड कारपेट बिछाने वालो को फुटपाथ पर सोते बच्चे नज़र नही आते ? और अगर नही आते है तो क्यों बाल विकास, बाल संरक्षण के नाम पर संविधान की किताबों को और मोटी करते जाते है |

उस पानी, मैदान का क्या फायदा जब बीज ही पौधा ना बन पाए तो और हम तो वर्तामान में बीज सड़ा रहे है और भविष्य में फल की मिठास के सपने देख रहे है.

आज आवश्यकता है योजना निर्माण कर्ताओ को एसी रूम से निकल कर सड़क पर घूम-घूमकर कुचले जा रहे बचपन को खोजने की है. पढ़ने के बजाये काम करने के कारणों का पता लगाने की. ये जानने की है कि क्यों परिवार के होते हुए भी एक बालक को, पालक की भूमिका निभानी पड़ रही है, उनके परिवार की क्या मजबूरी है. जरुरत मंदों को रोजगार कैसे मिले कि उनके बच्चे पढ़ सके, शराबी पिता के कारण श्रम को मजबूर बच्चो को संरक्षण कैसे दिया जाये, देश के MBA, IT, IIT, के लिए विदेशी उद्योग लाने वाले, देश के पिछड़े, आदिवासी, झुग्गी-झोपड़ी वाले निरक्षरों के लिए भी कुछ देशी उद्योग लगाये जिससे बड़ों को काम मिल सके क्योकि सबसे ज्यादा बाल मजदूर ऐसे ही परिवारों से होते है. और उससे भी बड़ी जिम्मेदारी हम लोगो की है कि अपनी सुविधाभोगी मानसिकता के लिए किसी के बचपन के साथ बलात्कार ना करे आज बाल दिवस के दिन ये संकल्प करे कि घर के काम करवाने के लिए, कार धोने क लिए, अपने बच्चो को सम्हालने के लिए किसी गरीब की मजबूरी का फायदा उठाकर उस मासूम को नौकर मत बनाये.

“MAKE IN INDIA” से पहले हमें “सोच IN INDIA” पर काम करना होगा तब जाकर बाल दिवस सार्थक हो सकेगा और भी क्या रास्ते हो सकते है इस बाल अधिकार क्रांति के, मुझे आपके जवाबो का इंतज़ार है.

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