खेलों की ओर बही नई सिंधु धारा
खेलों की ओर बही नई सिंधु धारा
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आखिरकार देश का सिल्वर मैडल लेकर सिंधु भारत आ ही गई। सिंधु के आने के ही साथ उन करोड़ों भारतीय खेल प्रशंसकों में जोश का संचार हो गया जो कि भारत का ओलिंपिक की पदक तालिका में खाता नहीं खुलने का रोना रो रहे थे। ऐसे लोग भारत का राष्ट्रीय ध्वज लेकर यहां वहां झूमने लगे। कुछ लोग हवन करने लगे तो कुछ मिठाईयां बांटने लगे। इतना ही नहीं भारत में बैडमिंटन की लोकप्रियता पहले से और बढ़ गई।

हालांकि बैडमिंटन लोगों में पहले से ही काफी लोकप्रिय है। मगर अब टेलिविज़न सीरियल्स में, बैडमिंटन के रैकेट नज़र आने लगे हैं। बैडमिंटन के हाॅल्स पर भी काफी लोग रैकेट लेकर जाने लगे हैं मगर शायद सभी यह बात भूल रहे हैं रोम एक दिन में नहीं बनता। भारतीय बैडमिंटन की उभरती प्रतिभा सिंधु और उसके कोच पुलेला गोपीचंद के ही साथ अन्य खिलाड़ियों और सिंधु को प्रेरणा देने वालों की मेहनत की सराहना करनी होगी।

जिस तरह से सिंधु मेहनत किया करती थी वह प्रेरणादायी है। भारत एक ऐसा देश है जहां पर कई तरह की मान्यताऐं समाज में चलती हैं। इतना ही नहीं पहनावे को लेकर भी लोगों में एकमतता और मतभिन्नता है। ऐसे में खेल विधा का विशेष पहनावा अपनाकर युवाओं के लिए खेल को अपनाना कुछ मुश्किल हो सकता है। इतना ही नहीं भारत में ग्राम स्तर और छोटे शहरों के स्तर पर जिस तरह की सुविधाओं का अभाव है इससे भारतीय खेल प्रतिभाओं में निराशा घर कर सकती है। कहा तो यह भी जाता है कि यदि बड़े स्तर का खिलाड़ी बनना हो तो अपने स्तर पर सुविधाऐं और खेल सामग्री जुटानी होती है।

खेल आयोजनों में चयन की अपनी प्रतिस्पर्धा है। मगर लोगों का जूनून और उत्साह उन्हें ऐसा स्वप्न देखने पर मजबूर कर रहा है जो पूर्ण होना बहुत मुश्किल है। इससे अलग हटकर भारत में ओलिंपिंक जैसे बड़े आयोजनों को लेकर मंथन किया जाए और सुनियोजित तैयारी की जाए। खिलाड़ी, कोच और प्रबंधकों को अपनी थकान मिटाने के बाद इस काम में लगा दिया जाए कि आगामी ओलिंपिक में भारत के दल को मैडल तो जीतना ही है।

तो फिर भारत की झोली मैडलों से भरी होगी। हालांकि इस बार भी रियो में भारत का प्रदर्शन लाजवाब रहा मगर पदक तालिका पर भारत निशाना नहीं साध पाया। ऐसे में एक बार फिर तैयारी प्रारंभ कर ली जाए तो भारत का सोना पक्का हो जाएगा। हां रियो में भारतीय प्रतिभाओं के प्रदर्शन ने लोगों को खेलों के प्रति आकर्षित किया है और अब लोग अपने बच्चों को खेल आयोजनों से जोड़ने लगे हैं। मगर कसर अभी भी कम ही है।

'लव गडकरी'

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