कल पीवी सिंधु की एक तस्वीर आई जिसमें वो अपनी माँगी मन्नत के पूरा होने पर किसी मंदिर में सर पर एक टोकरी लिए मंदिर जा रही थी। मंदिर शायद माँ काली की है। इससे कुछ इंटेलेक्चुअल लोगों को भारी दिक्कत हो गई है। उनका कहना है कि ये अंधविश्वास है। किसी ने सवाल पूछा कि सबकी अपनी आस्था होती है, किसी की एक मूर्ति में तो किसी की एक प्रार्थना में, तो आपको इससे क्या दिक्कत है।
तो जवाब दिया गया कि आखिर इसका मनोविज्ञान क्या है जो किसी आदमी को ऐसा करने पर मजबूर करता है। पीवी सिंधु द्वारा मन्नत पूर्ण करने के लिए मंदिर जाने के फोटो और उस पर आए विचारों को देखने से आपको पता चलेगा कि कैसे लोग दूसरे लोगों के लिए प्राथमिकताएँ तय करते हैं। सिंधु के लिए अगर उसके आत्मविश्वास का एक माध्यम माँ काली है तो इसमें कोई बुराई नहीं दिखती। लेकिन ज्ञानी लोग इसकी विवेचना कर रहे हैं। उन्होंने सिंधु के इस बयान को अनदेखा कर दिया कि उसने अपनी कामयाबी के पीछे अपने कोच का भी नाम लिया था, अपने परिवार वालों का भी, अपने देश का भी और तमाम हिन्दुस्तानियों का जो उसके लिए खड़े होकर तालियाँ बजाते थे।
अब जरा मनोविज्ञान वाली बात को यहाँ लाएँ। आखिर बुद्धिजीवियों से सवाल है कि सिंधु की जीत में हमारा और आपका क्या हाथ है? उसकी जीत में उसके परिवार का क्या हाथ है? वो तो अकेले एकेडमी जाती थी। इस देश नामक संस्था का क्या हाथ है जिसे वो धन्यवाद दे रही है? हर बात, जो आपके हिसाब से नहीं चल रही, जरूरी नहीं कि गलत हो जाए। ईश्वर में आस्था रखना या ना रखना एक निजी चीज है।
आपको ये स्वतंत्रता है कि आप खुद उसे माने या ना मानें। मैं पूजा नहीं करता, रोज नहीं नहाता, अगरबत्ती नहीं जलाता लेकिन मैं किसी दूसरे के ऐसा करने को अंधविश्वास नहीं बताता। तर्क ये है कि वो मेरे अधिकार क्षेत्र से बाहर है। पच्चीस-तीस साल आपकी उम्र नहीं है, देश के चार राज्य आपने देखे नहीं, चार किताबें पढ़ी नहीं और आप खुद को, अपनी लिमिटेड सोच के हिसाब से, इतना ज्ञानी समझने लगे कि आप किसी की आस्था पर सवाल उठा रहे हैं।
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