डिजीटल इंडिया के दौर में  कितना जायज है दबंग - दलित का भेद
डिजीटल इंडिया के दौर में कितना जायज है दबंग - दलित का भेद
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भारत को लेकर कहा जाता है कि यह विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक है. जहां हर व्यक्ति अपनी धार्मिक मान्यताओं को मानने, कहीं भी घूमने फिरने, स्वतंत्रता पूर्वक कार्य करने का अधिकारी है. यह वह देश है जो कि औद्योगिक क्रांति और कंप्युटर क्रांति के बाद डिजीटल प्लेटफॉर्म पर ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहा है, मगर इसके बाद भी इस देश में रूढ़ियां अपनी जड़ता में कायम हैं. वह परंपरावादी दृष्टिकोण जो कि एक मानव द्वारा ही दूसरे मानव से भेद रखने की सीख देता है। वह मान्यता जो लोगों को वर्ग विशेष में बांट देती है. उस आधार पर लोगों का हुक्का-पानी, लोगों का रास्ता और लोगों का ईश्वर तय कर दिया जाता है।

ऐसे मामलों को संक्षिप्त में समझने के लिए हम उन दो विषयों पर चर्चा कर रहे हैं जो कि कुछ समय पूर्व ही हुईं. दरअसल राज्यसभा सांसद तरूण विजय और उनके साथ मौजूद कुछ दलितों को एक मंदिर में दर्शन करना इतना भारी पड़ा कि उनको पीट दिया गया. न केवल पीटा ही गया बल्कि उनकी जान पर भी बन आ गई. मगर वे दलित हित के लिए लड़ते रहे. इतना ही नहीं इस घटना का शोर थमा भी नहीं था कि हरियाणा में एक दलित को उसकी शादी में घोड़ी नहीं चढ़ने दिया जाता है. आखिर जाति के नाम पर इतना भेदभाव क्यों? भारत रत्न डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर ने जाति प्रथा को मिटाने के लिए भारत के संविधान में आर क्षण का प्रावधान किया मगर आरक्षण का प्रावधान भी इस तरह की घटनाओं को बेअसर नहीं कर पाया है।

आज दबंग दलित को उसी तरह से दबा रहा है जिस तरह से वह पहले दबाता था. ऐसा समय जब हर नागरिक का अपना बैंक खाता खुल गया है, हर नागरिक कंप्युटर साक्षर होने की ओर कदम बढ़ा रहा है. हर किसी को डिजीटल प्लेटफॉर्म पर विभिन्न योजनाओं का लाभ उपलब्ध करवाया जा रहा है उस समय पुरातन पंथी घटनाएं हो रही हैं. भारत का संविधान यह दर्शाता है कि हर नागरिक अपने अनुसार धार्मिक आचरण करने का अधिकारी है, ऐसे में यदि दलितों को मंदिर में प्रवेश दिया जाता है तो फिर क्या गलत है? फिर इसमें शुद्धि और अशुद्धि की बात ही नहीं उठती।

जब दलित पूर्ण मनोयोग से दर्शन करते हैं तो फिर मंदिर अपवित्र कैसे हो जाता है. आखिर इस तरह का व्यवहार क्यों किया जा रहा है? क्या ईश्वर ने इंसान को बनाने में भेद किया है? हालांकि भले ही यह बात मान ली जाए कि भारतीय वर्णआश्रम में जो जातियां विभाजित थीं वे हमारे समाज के धार्मिक विभाजन का भी आधार था मगर इसके बाद भी यह कहना कि दलित मंदिर में प्रवेश नहीं पा सकता गलत होगा. दरअसल इस वर्णाश्रम व्यवस्था में समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्गों में विभाजित था. हालांकि ब्राह्मण का कार्य अग्निहोत्र आदि करना था मगर इस व्यवस्था में किसी शूद्र को पूजन के अधिकार से वंचित नहीं किया गया।

यदि हम रामायण काल की ही बात लें तो भगवान श्री राम ने केवट की नांव में बैठकर नदी का नट पार किया था. उन्होंने उस शबरी के बेर चखे थे जो कि एक अलग वर्ग से मानी गई थी. आखिर फिर हम उस कालक्रम की बात लेकर इस तरह का भेद कैसे कर सकते हैं. जब हमने मंदिरों को धर्मस्व विभाग के अंतर्गत रखते हुए उन्हें सार्वजनिक या सभी के दर्शन योग्य घोषित कर दिया है तो फिर दबंग और दलित का भेद कैसा. आखिर दलित भी उसी परमात्मा की कृति है जिसने इस चर-अचर जगत को बनाया है. आखिर दलित को घोड़ी चढ़ने का अधिकार क्यों नहीं है?

क्या एक दबंग मंदिर में प्रवेश करेगा या घोड़ी चढ़ेगा तो ही ईश्वर सब पर प्रसन्न होगा. मगर ऐसा नहीं है. ईश्वर हम सभी के बीच है. वह दबंग और दलित नहीं जानता वह अवर्ण और सवर्ण नहीं जानता. वह अगड़े और पिछड़े नहीं जानता है. फिर हम अपने स्वार्थ के लिए इन बातों से उपर उठकर क्यों विचार नहीं करते हैं? दबंग और दलित को राजनीतिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए. इसके लिए इससे उपर उठकर कार्य करने की आवश्यकता है।

'लव गडकरी'

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