चन्द्रप्रभ प्रभु जैन धर्म के आठवें तीर्थंकर के रूप में प्रसिद्ध है
चन्द्रप्रभ प्रभु जैन धर्म के आठवें तीर्थंकर के रूप में प्रसिद्ध है
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चन्द्रप्रभ प्रभु जैन धर्म के आठवें तीर्थंकर के रूप में प्रसिद्ध है। चन्द्रप्रभ जी का जन्म पावन नगरी काशी जनपद के चन्द्रपुरी में पौष माह की कृष्ण पक्ष द्वादशी को अनुराधा नक्षत्र में हुआ था। इनके माता पिता बनने का सौभाग्य राजा महासेन और लक्ष्मणा देवी को मिला। इनके शरीर का वर्ण श्वेत (सफ़ेद) और चिह्न चन्द्रमा था।

चन्द्रप्रभ जी का जीवन परिचय

चन्द्रप्रभ जी ने भी अन्य तीर्थंकरों की तरह तीर्थंकर होने से पहले राजा के दायित्व का निर्वाह किया। साम्राज्य का संचालन करते समय ही चन्द्रप्रभ जी का ध्यान अपने लक्ष्य यानि मोक्ष प्राप्त करने पर स्थिर रहा। पुत्र के योग्य होने पर उन्होंने राजपद का त्याग करके प्रवज्या का संकल्प किया।

एक वर्ष तक वर्षीदान देकर चन्द्रप्रभ जी ने पौष कृष्ण त्रयोदशी को प्रवज्या अन्गीकार की। तीन माह की छोटी सी अवधि में ही उन्होंने फ़ाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन केवली ज्ञान को प्राप्त किया और "धर्म तीर्थ" की रचना कर तीर्थंकर पद उपाधि प्राप्त की। भाद्रपद कृष्णा सप्तमी को भगवान ने सम्मेद शिखर पर मोक्ष प्राप्त किया।

भगवान के चिह्न का महत्त्व

भगवान चन्द्रप्रभ के नाम का अर्थ ‘चन्द्र प्रभा’ से युक्त होना है। चन्द्रमा यश अपयश, लाभ हानि, उत्थान पतन का एक प्रतीक। इस संसार में जो आता है उसे जान भी होता है, जिसका सम्मान होता है वह अगर कुछ गलत कर दे तो लोग उसका तिरस्कार भी करते हैं। चन्द्रमा की तरह जीवन भी कई कलाओं से युक्त है। यह जन्म से मृत्यु के अनुसार घटती बढ़ती रहती हैं। चंद्रमा से हमें आभायुक्त बने रहने की शिक्षा मिलती है। यदि शुभ विचारों का जन्म होगा तो जीवन विकसित होता हुआ मोक्ष को प्राप्त हो जायेगा।

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